सोमवार, 20 सितंबर 2010
अँधेरा रोज मिलता है
कहाँ मैं ढूँढने जाऊँ अँधेरा रोज मिलता है
सुबह की पालकी लेकर सवेरा रोज मिलता है
उड़ा आकाश का पंछी बहुत ही दूर जायेगा
मुसाफिर है मुसाफिर को बसेरा रोज मिलता है
हमें हैं देखते वो भी हमारी नजर है उन पर
नजर में जो रहा बसता चितेरा रोज मिलता है
नहीं चौकस पहरूये जब रहें चौकस कहां तक हम
यहाँ हर मोड़ पर चौकस लुटेरा रोज मिलता है
उन्हें अपनी पड़ी केवल नहीं चिन्ता गरीबों की
झँपोली में लिये नागिन सपेरा रोज मिलता है
सुलाता है चुभन को वो दिहाड़ी रोज ले लेकर
तलाशी में गुजारे की पथेरा रोज मिलता है
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