सोमवार, 19 अक्तूबर 2009

“मत गर्दिशी की बात कर”

गर्दिशों में जी रहा मैं,
मत गर्दिशी की बात कर ।
हो सके यदि कर सको तो,
प्यार की कुछ बात कर ॥




शून्य सा अब मैं खड़ा हूँ,
बस अभां की रात है ।
स्वप्न में ही देखता हूँ,
चाँदनी भी साथ है ॥




इक दिया बनकर प्रिये तू,
कुछ रोशनी इजहार कर ।
गर्दिशों में जी रहा मैं,
मत गर्दिशी की बात कर ।
हो सके यदि कर सको तो,
प्यार ................. ॥




इम्तहाने वक्‍त ने बस वक्‍त की पहचान दी।
लग रहे तो जो पराए जिन्दगी की राह दी ॥




होकर पराया ही सही हूँ,
हम सफर बन प्यार कर ।
गर्दिशों में जी रहा मैं,
मत गर्दिशी की बात कर ।
हो सके यदि कर सको तो
प्यार की ............. ॥





‘ढूँढता था मैं जहाँ में,
बस एक रहनुमा की चाह थी ।
होश जब मुझको हुआ,
मानो उम्र ही गुजार दी ॥




सोच ऐसी ना रही अब, तूँ वफा या बेवफा,
बेवफा होकर सही तूँ कुछ वफा की बात कर ।
गर्दिशों में जी रहा मैं, मत गर्दिशी की बात कर,
हो सके यदि कर सको, प्यार.....................॥





कह रहा मुझसे चमन,
तोड़कर अब अपना मौन ।
जख्म अपने देख ले तूँ,
कुछ मरहमें इजाद कर ॥




साथ जिनका पा लिया है, बस उन्हीं से प्यार कर,
गर्दिशों में जी रहा मैं मत गर्दिशी की बातकर ।
हो सके यदि कर सको तो, प्यार.....................॥





प्यार के इस राह पर,
सहादतें हजार हैं ।
मान ले तूँ जिन्दगी,
एक फासले गुबार है ॥




इस निशा की कालिमा में, तूँ चाँद बन जहान पर ।
मत गवाँ इस वक्‍त को आ जिगर से प्यार कर,
गर्दिशों में जी रहा मैं, मत गर्दिशी की बात कर ।
हो सके यदि कर सको तो, प्यार की कुछ बात कर ॥

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें