सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

ये लड़कियाँ

खुद इस्तेमाल हो रही ये लड़कियाँ,
पश्‍चिमी सभ्यता के मोहपाश में,
जकड़ी जा रही हैं ये लड़कियाँ,
नहाने के साबुन से कंडोम के विज्ञापन तक में ,
अपना जिस्म दिखा रही हैं ये लड़कियाँ,
कभी फैशन शो में, कभी चीयर गर्ल बनकर,
जलवे दिखा रही हैं ये लड़कियाँ,
जिस्म को ढकने के बजाय जिसने,
दिखाने की वस्तु बना दिया,
खुद बदनाम हो गई हैं ये लड़कियाँ,
क्या उम्मीद करूँ बनेगी कोई लक्ष्मीबाई,
जन्म लेगी अब कोई सीतामाई,
जब संस्कृति और संस्कार को नहीं जानेगी,
हम क्या थे, क्या हैं और क्या होंगे,
जब तक जानेंगी नहीं ये लड़कियाँ,
गिरती चली जाएँगी, पतन होता जाएगा,
आपको लगता है सम्मान दिलाएँगी ये लड़कियाँ?
इनको सुधारने क्या कोई नया जन्म लेगी?
अब भी वक्‍त है सुधर जाओ संभल जाओ,
गुजरे जमाने का आदर्श छोड़ रही हैं ये लड़कियाँ,
तलाक, हत्या और बलात्कार की शिकार ये हो रहीं,
जिंदा जलाए जाने की खबर बन रही ये लड़कियाँ,
कहाँ गई वो शर्म, हया, वो त्याग , वो भावना,
कभी आदर्श हुआ करती थीं ये लड़कियाँ,
शायरों, कवियों, ग़जलकारों की विषय जो हुआ करती थीं,
डॉक्टरों के यहाँ गर्भपात करा रही यें लड़कियाँ,
आजादी का गलत अर्थ जब-जब निकालेंगे,
बद नहीं बल्कि बदतर हो जाएँगी ये लड़कियाँ,
चाहे हो हिंदू, मुसलमान, सिख, या इसाई,
कभी न कभी होंगी परायी ये लड़कियाँ,
सास-ससुर, ननद और देवर-जेठ के नखरे,
शिक्षा दो इनको कैसे भार उठाएँगी ये लड़कियाँ,
नारी के नारीत्व को जब ये अपनाएँ,
खुद की ही नहीं, समाज की भी पहचान बनेंगी ये लड़कियाँ ।

गोपाल प्रसाद

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