गुरुवार, 23 जुलाई 2009

समीक्षा का दर्द

बीत गए वर्ष दो उन्हें दिए हुए पुस्तक
जाने क्यों मौन हैं वो अभी तक समीक्षक
कितनी टीस देती है ये पुस्तक समीक्षा
कैसे ले रहे हैं ये कवि की परीक्षा
दंभ से भरे हुए ये महोदय समीक्ष
नई पौध के हैं ये रक्षक या कि भक्षक
धारा, विद्या विषय नहीं है इन्हें सरोकार
ऐसे समीक्षकों को है बार-बार धिक्‍कार ।

- गोपाल प्रसाद

रंगहीन दर्द

भूख से तड़पते व्यक्‍ति का दर्द
बिन ब्याही बेटी के माँ का दर्द
नशे में धुत पति के व्यवहार का दर्द
शराबी बेटे के हरकतों का दर्द
अपनी संपत्ति खो जाने का दर्द
बीमारी से उत्पन्‍न कष्ट का दर्द
प्रसव वेदना से तड़पती माँ का दर्द
अपनों के खो जाने का दर्द
प्रियतम के बिछड़ने का दर्द
वेदनाओं को कलमबद्ध करने का दर्द
संवेदनाओं को महसूस करने का दर्द
देश के लिए मर मिटने का दर्द
धर्म और न्याय पर अत्याचार का दर्द
ज्यादा होने का दर्द
लाचारी और अभाव का दर्द
बेबसी में जिंदगी गुजारने का दर्द
दर्द में डूबे रहना ही तो
हमारी नियति है
जो ना डूबे इस दर्द में
उसे क्या मालूम
कि इस दर्द का नशा
कैसा होता है,
क्योंकि यह दर्द तो रंगहीन है ।

गोपाल प्रसाद

राजनीति

राजनीति में ईमानदारी
और ईमानदारी की राजनीति,
राजनीति का अपराधीकरण
और अपराधियों का राजनीतिकरण

जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर
हो रहें अब चर्चे
क्योंकि ईमानदारी, सत्य और अहिंसा
शब्द तो अब

अप्रासंगिक हो चुके हैं
कौन करता है चर्चा इस पर
किसके पास है
बेफिजूल वक्‍त

इतने वक्‍त में तो
एक राजनीतिज्ञ करोड़पति बन जाएगी
इस देश की गाढी कमाई को
स्विस बैंक में जमा कर

हम देखते रह जाऐंगे
केवल चर्चा कर जाऐंगे
क्या कुछ हो सकता है
इन चर्चाओं से

क्या परिवर्त्तन की धारा बहेगी
इन फिजाओं से
ईमानदार युवाओं के हाथ में होगी
तभी दूर होगी देश की तमाम विकृति ।

- गोपाल प्रसाद

प्रयास

बता सकता है कोई
प्रकृति को बचाने हेतु
किए हैं अपने कितने प्रयास
क्या-क्या किया है आपने
आपने क्या-क्या नहीं किया
धरती को यूरिया से भरकर बंजर बना दिया
चट्टानों को तोड़कर कंकड और रास्ते बना लिए
मगर किसको फिक्र है पूछने की
पहाड़ों की संवेदना
उसे भी हुआ होगा दर्द
झेली होगी त्रादसी
पर्यटन के बहाने हमने उसको गंदा किया
प्रदूषित तन और मन से
सीधे-साधे पहाड़ियों को भी
विकृत कर दिया
हाय रे कमबख्त इंसान
कुछ तो शर्म करो
ये धरा, ये क्षितिज, ये इन्द्रधनुष
ये प्रकृति सब खत्म हो जाएगी
यदि तुम आज भी खुद को चेतो नहीं
विकल्पों को ढूँढो
सावधानियों को बरतो
इन्हें मूक और निर्जीव मत समझो
ये तो काफी अच्छे हैं
तुम्हारे जैसे सजीव से
जो खुद अपनी धरती माँ के
सीने पर खंजर चला रहे हैं
प्रकृति के साथ-अन्याय कर
पर्यावरण प्रदूषण फैला रहे हैं ।

- गोपाल प्रसाद

पहचान

नीलेकणी ने कहा कि हम अपनी पहचान खो रहे हैं
क्या अर्थ है, क्या भावार्थ है इस वाक्य का
सोच रहा हूँ, विचार कर रहा हूँ
क्या हम वास्तव में अपनी पहचान खो गए हैं
हमारे मूल्य, हमारी संस्कृति खो ही तो गई है
हम अपने पराए, रिश्तों-नातों
और संवेदनाओं को भूलते जा रहे हैं ।

अंधे व्यक्‍ति की तरह बढ़े जा रहे हैं
बिना उद्देश्य, बिना मंजिल के
क्य कभी पहुँच पाऐंगे
जिसका हमने सपना देखा है ।

वही २०२० के सपनों का भारत
क्या किसी जादू से पूरा होगा?
पूरा होगा तो मात्र हमारी पहचान पर
हमारी एकता और अखंडता की शक्‍ति पर
हमारे सभ्यता और संस्कृति के बल पर
हमारे पूवर्जों, ऋषि मुनियों और बलिदानियों के त्याग पर
आज हम झूठी पहचान के बदौलत जीना चाहते हैं ।

अपने कर्त्तव्य का निर्वहन किए बिना
अधिकार की बात करते हैं
क्या यह न्याय है?
इसका सही जवाब
मिलेगा हमें खुद से, हमे खुद से ।

- गोपाल प्रसाद

परंपरा

क्या है हमारी परंपरा
नहीं मालूम हमारे बच्चों को
न हमें गरज है नैतिक शिक्षा और संस्कार बताने की
परंपरा से आगे होने के चक्‍कर में
हम छोड़ देते हैं अपने पुराने परंपरा को

चौतरफे षडयंत्र की माफिक हो रहे हैं हमले
हमारी संस्कृति और परंपरा पर
स्वच्छंद और उन्मुक्‍त हो रहे हैं हम
हमें ज्ञान ही नहीं अपनी परंअपरा का
वे कर रहे नए ईजाद इस पर

और हमें दूर करने की ताना बाना है बुन रहे
पाश्‍चात्य संस्कृति की आँधी
क्या हमें उडा देगी
नहीं कमजोर हम इतने
यहा आँधी हमें क्या डराएगी?

करनी होगी कुछ तैयारी
खींचना होगा एक एक बड़ा दायरा
उस पाश्‍चात्य संस्कृति के वृत के ऊपर
हम अपनी संस्कृति के बड़े वृत के द्वारा
ही तो कर पाऐंगे उसकी शक्‍ति को निस्तेज ।

- गोपाल प्रसाद

नजर

घूरती रहती है नजर
वासना भरी गंधों से युक्‍त
पूछे कोई उस मासूम अंधखिली
नवयौवना से
जो घूरने वाली हर नजर को
भाँप लेती है
सूँघकर बता सकती है
घूरने वालों के अंदर की बात
क्या यह नजर का दोष है,
या उस नजर से देखनेवालों का
या समाज के चारित्रिक पतन का
पूछना है प्रश्न मुझे
अपने समाज से
दे सकता है कोई भी
इसका जवाब
ढूँढ रहा हूँ उस नजर को
जो इस नजरिए से मुक्‍त हो
बढ़ गई है बलात्कार और
अवयस्क गर्भ के मामले
हाय रे समाज
हाय यहाँ की स्थितियाँ परिस्थितियाँ
कब खत्म होगी ये
यही सोंचते-सोंचते फिर
एक नए सुबह की दस्तक देने
सूरज निकल आया है ।

- गोपाल प्रसाद

नवजात शिशु

इस दुनियाँ का
सबसे बड़ा भाग्यवान है
नवजात शिशु
नहीं होती कोई चिंता
नहीं कोई तृष्णा,
नहीं होती छल प्रपंच
नहीं होती घृणा

होती है मात्र मूक अभिव्यक्‍ति
प्यार और दुलार का प्रत्युत्तर
भूख आने पर रोने का नाटक
और दूध मिलने पर चुप्पी
उसका नहीं होता कोई दायरा
मात्र प्यार की शक्‍ति से
बँध जाता है वह
अपना-पराया
सब समान है उसके लिए

काश हम भी नवजात ही बने रहते
क्योंकि सबों को हमसे
प्यार करने के लिए
दायरे से बँधना नहीं पड़ता
हमें आजादी होती
किसी के संग हँसने की, रोने की
नहीं रहती कोई चिंता
कोई भेदभाव और कोई परेशानी
हमें भी रहती जिन्दगी जीने की आसानी ।

- गोपाल प्रसाद

मेरा शहर

जहाँ हम रहने लगते हैं
वही मेरा अपना शहर हो जाता है
जुड़ जाती है मेरी संवेदनाएँ उससे
परेशानियों से जूझते रहने की आदत
दोहरे जिन्दगी में जीने की फितरत
हमारे आदतों में शामिल कर देता है ये शहर
हम तो थे गाँव के सीधे सादे इंसान
उसूलों के लिए लड़ना था मेरा ईमान

पर लगता है मुझे बदलते होंगे अपने रास्ते
अपनाना पड़ेगा हमें इस नए शहर के कायदे
कभी खुद को कभी तस्वीर को
तो कभी इस शहर को देखते हैं
क्या बिना लक्ष्य के कोई यहां पासे फेंकते है?
आज हुई शादी का कल नामोनिशाँ
नहीं मिलता कभी शहर में
किराए का सब कुछ
कभी सुकूँ नहीं देता मन

अजीब हादसों को झेलने की
पड़ गई है आदत इस शहर में
पराए तो पराए, अपनों ने भी
दूरी बनायी इस शहर में

फिर भी महानगर कहलाने का है गर्व इनको
नाम कमाना हो जिनको उल्टे-सीधे हरकत करो ।

- गोपाल प्रसाद

मैं तो ऐसा ही हूँ

नहीं सुहाता है मुझे उनका घमंड
भले ही सहना पडे यह गर्मी का प्रचंड

सब कुछ सह जाता हूँ मगर,
कुछ नहीं कहकर सब कुछ कह जाता हूँ
बिन कहे रहने की आदत नहीं,
मानव सेवा को छोड़ मंदिर पूजना इबादत नहीं
आडंबर में जीते हैं लोग मगर
कर्मयोग एवं सादगी की दिशा में हमने बढ़ाया अपना डगर
मेरे हौसले, मेरे जज्बे, मेरे दृष्टि पर शक हो किसी को अगर
फाड़कर दिखा सकता हूँ अपना जिगर
मेरी भलमनसाहत को कोई कमजोरी न समझे
मुझसे काम निकलवाने को अपनी चालाकी न समझे
कुछ अपने पराए हुए, कुछ पराए हुए अपने
बिन देखे ही पूरे हुए हैं किसी के सपने?
मेरे व्यवहार में है चुंबकीय शक्‍ति
कर्म को पूजा है अब तक उसी के प्रति है मेरी भक्‍ति
विश्‍वास और जिजिविषा को किया है मैने अर्जित
अवगुणों, पश्‍चाताप, संताप को कर दिया वर्जित
शांत तालाब में कंकड़ फेंककर तरंगों को देखना
बुद्धि और चातुर्य के ब्रह्यास्त्र को लक्ष्य की ओर फेंकना
शक्‍ति पुंजों की पंक्‍ति में आनोको हूँ बेकरार
क पर्सेन्ट ईमानदारी पर टिका है यह संसार
बढ़ेगी ईमानदारों की ताकत मुझे तो है विश्‍वास
हर संकट से सामना कर, नहीं छोड़ा अब तक आस ।
नहीं बदल सकता मैं स्वयं को
क्योंकि मैं तो ऐसा ही हूँ ।

- गोपाल प्रसाद

बुधवार, 22 जुलाई 2009

क्या हम आजाद हुए ?

भ्रष्टाचार, भय और भूख का,चारों तरफ संग्राम छिड़ा है ,
जिसके लिए वीरों ने किया न्यौछावर अपना प्राण,
समस्याएं बढ़ गई, नहीं मिला अब तक त्राण,
पहले चरम पर हुआ करता था अंग्रेजों का जुल्म,
फिर भी हमें था इसका इल्म,
अंग्रेजों को तो हमने मार भगाया,
पर उस हालात ने हमारा स्वाभिमान जगाया,
अब तो हमारा स्वाभिमान मर चुका है,
क्रांति आएगी कैसे यह प्रश्न अब उठ चुका है,
आओ वीरो, आओ युवकों, आओ हे नारी शक्‍तियों,
भारत माँ के इज्जत से तो खेल रहें है अपने जयचंद,
खोज रहा हूँ जिन्दा लोगों को,बलिदानियों और क्रांतिकारियों को,
क्रांति हेतु पुनः करना है तुम्हें शंखनाद,
बिना इसके क्या हो सकेगा मेरा देश आबाद?
पुराने कानून, देरी की न्याय व्यवस्था ,
इसके बदौलत क्या सुधरेगी भारत की अवस्था?
पारदर्शिता, सहकारिता, सहभागिता, समन्विता अपनानी पड़ेगी,
कुछ तुम करो कुछ हम करें यह आदत बनानी होगी ,
चल पड़ा हूँ मैं जलाने जहाँ है अब तक अंधेरा,
कितने लोग लालायित है आनंद की बिन बसेरा,
कैसे पाटी जाएगी दूरी कैसे बनेगा समाज में संतुलन,
योजनाकारों को करना पड़ेगा यह आकलन,
झूठे आंकड़ों की बदौलत वाहवाही को बेताब ये नेता,
कालाधन विदेश भेजेंगे, प्रश्न पूछने सांसद है घूस लेता,
किसकी आजादी, कैसी आजादी, कब मिलेगी आजादी,
गरीबों, मजलूमों, बेबसों को नहीं हैं इसका इल्म,
झेलने को विवश है आज भी अब तक ये जुल्म,
अपने पेट पर हाथ रखकर,
बिना अन्‍न के सो जाते होंगे कुछ बच्चे,
वो क्या जाने हकीकत क्या झूठे सपने होंगे सच्चे?
काश आज गाँधी जिंदा होते,
लोगों के विवेकहीन सुख और चरित्रहीन ज्ञान देखते,
मानवताविहीन विज्ञान, नीतिविहीन व्यापार और त्यागविहीन उपासना,
सिद्धान्तविहीन राजनीति और श्रमविहीन सम्पत्ति की,
होती है यहां अराधना,
पढ़ा था मैंने,
“सूर्य में कितनी तपन है,अग्नि में कितनी जलन है,
बता सकते हैं वही लोग,जिनकी जिंदगी हवन है ,
बता सकते हैं आप कितने देंगे अपना बलिदान?
जान लें आप भी राष्ट्र प्रथम की भावना से ही,
जगेगा देश का यह स्वाभिमान ।
- गोपाल प्रसाद

दायरा

वे कहते हैं मैने दायरा खींच रखा है,
अपनी अश्रुधारा से जीवन को सींच रखा है,
किसे नहीं है कष्ट किसको नहीं है दर्द का अहसास,
इसके बावजूद चेहरे से झलकता है दिव्य प्रकाश,
सारी हो अच्छाई- उनमें,नहीं हो कोई बुराई उनमें,
बिना हिचक वे कह सकते है,
फिर मुझको ही केवल वे सह सकते हैं,
कवियों सी लगती हैं, उनकी संवेदना,
पर वास्तव में नहीं है उनमें कोई चेतना,
वे सोचते है केवल अपने और अपने बारे में,
मैं तो जीता हूँ मात्र अपने गुजारे में,
सूँघ लेता हूँ उनकी होने वाली हरकतों को,
जान जाता हूँ उनके छद्‌म दर्द और अहसासों को,
वे घटा रहे हैं अपना दायरा,
मैं बढ़ा रहा हूँ अपना दायरा ।
- गोपाल प्रसाद

भारत माता

मैंने पूछा भारत माँ से एक प्रश्न,
रूढियाँ, अंधविश्‍वास, प्रथाएँ और परंपरा,
पूर्व से ही तो थे यहाँ पर,
फिर भी इतना भेद न था,
जो आज आरक्षण समर्थन -विरोध,
के कारण समाज के टुकड़ों में,
बँटने से हो चुका है,
साम्प्रदायिकता, आतंकवाद,आज भवें चढ़ा रहा है ,
संस्कृति का हो रहा पतन,
भ्रष्टाचार, बेईमानी बल खा रहा है,
बढ़ गई है हमारी अंतहीन चिंताएँ,
हो सकती है ये चिंताएँ,
ही सजाएँगी हमारी चिताएँ,
माँ अपने पुत्रों की स्थिति,
पर कुछ तो सोचो,
कुछ तो बोलो मुँह तो खोलो,
मैंने सुना है माँ का सीना विशाल होता है,
पुत्र देता है माँ को दगा मगर,
पुत्र को चोट लगने पर,
माँ को ही दर्द का एहसास होता है ।
- गोपाल प्रसाद

आज का प्रश्न

हर तरफ उठ रहे हैं नए प्रश्न ,
कहीं जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्रवाद का प्रश्न ,
कहीं उन्मुक्‍तता और यौन स्वच्छंदता का प्रश्न ,
कहीं भ्रष्टाचार, अपहरण, बलात्कार, हत्या, डकैती, चोरी, का प्रश्न ,
तो कहीं है आधुनिकता बनाम पुरातन का प्रश्न ,
कहीं विचार, दृष्टि और क्रांति का प्रश्न ,
कहीं दलित और मानवाधिकार का प्रश्न ,
कहीं आजादी और गुलामी का प्रश्न ,
कहीं विकास, न्याय और हार-जीत का प्रश्न ,
कब तक जूझते रहेंगे हम इन प्रश्नों से पूछता है मेरा अंतर्मन ,
तैयार नहीं कर पाता स्वयं को उसके उत्तर देने हेतु,
लगता है मुझे बनानी पड़ेगी विचार श्रृंखला की सेतु ,
कभी-कभी हमें लगता हैहम इन प्रश्नों के अभ्यस्त हो गए हैं ,
अब प्रश्न हमें प्रभावित नहीं कर सकती ,
क्योंकि वास्तव में हम प्रश्नों के दायरे में रहना ,
अपनी गुलामी मानते हैं,
जब कोई प्रश्न हमें उद्वेलित ही नहीं कर सकता ,
तब प्रश्न उठता है कि वैचारिक क्रांति होगी तो होगी कैसे?
क्योंकि अब प्रश्न विस्फोट नहीं करतेउन नकली पटाखों की तरह ,
जो आग लगने के बाद भी प्रभावहीन रहते हैं ।
- गोपाल प्रसाद