गुरुवार, 23 जुलाई 2009

पहचान

नीलेकणी ने कहा कि हम अपनी पहचान खो रहे हैं
क्या अर्थ है, क्या भावार्थ है इस वाक्य का
सोच रहा हूँ, विचार कर रहा हूँ
क्या हम वास्तव में अपनी पहचान खो गए हैं
हमारे मूल्य, हमारी संस्कृति खो ही तो गई है
हम अपने पराए, रिश्तों-नातों
और संवेदनाओं को भूलते जा रहे हैं ।

अंधे व्यक्‍ति की तरह बढ़े जा रहे हैं
बिना उद्देश्य, बिना मंजिल के
क्य कभी पहुँच पाऐंगे
जिसका हमने सपना देखा है ।

वही २०२० के सपनों का भारत
क्या किसी जादू से पूरा होगा?
पूरा होगा तो मात्र हमारी पहचान पर
हमारी एकता और अखंडता की शक्‍ति पर
हमारे सभ्यता और संस्कृति के बल पर
हमारे पूवर्जों, ऋषि मुनियों और बलिदानियों के त्याग पर
आज हम झूठी पहचान के बदौलत जीना चाहते हैं ।

अपने कर्त्तव्य का निर्वहन किए बिना
अधिकार की बात करते हैं
क्या यह न्याय है?
इसका सही जवाब
मिलेगा हमें खुद से, हमे खुद से ।

- गोपाल प्रसाद

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