गुरुवार, 23 जुलाई 2009

नजर

घूरती रहती है नजर
वासना भरी गंधों से युक्‍त
पूछे कोई उस मासूम अंधखिली
नवयौवना से
जो घूरने वाली हर नजर को
भाँप लेती है
सूँघकर बता सकती है
घूरने वालों के अंदर की बात
क्या यह नजर का दोष है,
या उस नजर से देखनेवालों का
या समाज के चारित्रिक पतन का
पूछना है प्रश्न मुझे
अपने समाज से
दे सकता है कोई भी
इसका जवाब
ढूँढ रहा हूँ उस नजर को
जो इस नजरिए से मुक्‍त हो
बढ़ गई है बलात्कार और
अवयस्क गर्भ के मामले
हाय रे समाज
हाय यहाँ की स्थितियाँ परिस्थितियाँ
कब खत्म होगी ये
यही सोंचते-सोंचते फिर
एक नए सुबह की दस्तक देने
सूरज निकल आया है ।

- गोपाल प्रसाद

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